रविवार की ये बात है 'एक गुम्बद टूटा!’ ‘दूसरा भी टूट गया!!’ ‘पूरी मस्जिद ढह गई!!!’ थोड़ी-थोड़ी देर फोन आए, और ये खबरें मिलीं। मैंने भी सुना।
मुझे बहुत बुरा लगा। मैं सोचती रही कि ‘उन्होंने मस्जिद तोड़ी क्यों?’ मैंने अपनी सहेली इशिता से पूछा तो उसका भी यही कहना था ‘यह गलत हुआ|' अगर उन्हें मंदिर बनाना ही था तो मस्जिद के बगल में बना लेते।’
अगले दिन सोमवार था। मैं स्कूल गई। पढ़ाई नहीं हो रही थी, औरों को क्या लगा, यह जानने के लिए मैंने अपनी क्लास के कुछ बच्चों से पूछा कि ‘मस्जिद टूटी तो तुम्हे अच्छा लगा या बुरा?’ जिस -जिस से पूछा, उनका नाम व राय अपनी कॉपी के पीछे लिख लिए। ऐसे कुल 75 बच्चों की राय मुझे पता लगी। इनमें से लगभग 50 को अच्छा और 25 को बुरा लगा था। जिन्हें अच्छा लगा वे सब हिंदू, और जिन्हें बुरा लगा वे सब मुसलमान थे।
इस बातचीत से मुझे यह भी पता चला कि उस रात मुसलमान घरों में कोई सोया नहीं, क्योंकि उन्हें डर था। बारी-बारी डंडे लेकर पहरा देते रहे थे। थोड़ी-सी आहट होते ही सब दौड़ पड़ते और हल्ला मच जाता था।
(दिसंबर, 1998)
तब मैं दस साल की थी। अब मैं इक्किस साल की हूं। अयोध्या की घटना ने मेरे मन और दिमाग पर एक अमिट छाप छोड़ी है। मुझे याद है कि इस छोटे से तात्कालिक सर्वे के द्वारा मेरा मन था कि बड़े लोगों को दर्शाया जाए कि कैसे बच्चों को मंदिर-मस्जिद की लड़ाई से कोई फर्क नहीं पड़ता और इस तरह की कटुतापूर्ण बातें उन्हें भी छोड़ देनी चाहिए। परंतु इस सर्वे का नतीजा इसके बिल्कुल विपरीत निकला था। उन बच्चों के लिए, जो इस सर्वे का हिस्सा थे, यह एक असली लड़ाई थी, जिसका गहरा असर उनकी रोजाना जिंदगी पर कई तरह से डर और असुरक्षा पैदा कर रहा था।
यह असर कई पीढ़ियों तक, सरकार व दूसरे संप्रदायों के ठोस व सकारात्मक कदम उठाए बिना तो नहीं जा सकता। दूसरी तरफ, हिंदू बच्चे भी अपने घर व आस-पड़ोस के बड़े लोगों से काफी प्रभावित दिखे। यह मानना गलत न होगा कि जो लोग मस्जिद तोड़े जाने के ज्यादा पक्ष में थे, ऐसे मौके पर उनकी आवाज ज्यादा ऊंची रही होगी। इसका मतलब यह नहीं कि सब लोग अगर जा सकते तो अयोध्या जाकर बाबरी मस्जिद तोड़ने में हाथ बंटाते। मगर उनकी उत्तेजना पूर्वी दिल्ली की एक अनधिकृत कॉलोनी में बच्चों की सोच को प्रभावित करने के लिए काफी थी।
(सितंबर, 2010)
हाल ही में जब देश में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले का इंतजार हो रहा था| अटकलें लगाई जा रही थीं कि लोगों की और राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया कैसी होगी? कहा जा रहा था कि अब लोग परिपक्व हो गए हैं और कोई हिंसा आदि नहीं होगी। कई लोगों का मानना था कि देश में युवा वर्ग की तादाद बहुत है और वे या तो 1992 में हुए दंगों घटना के बाद पैदा हुए हैं या फिर नौकरियां कर बहुत कमा रहे हैं, जिसमें वे न कोई अड़चन चाहते हैं और न ही उनके कोई सामुदायिक सरोकार रह गए हैं। एक पल के लिए यह तर्क जितना भी दुखदायी हो, सही लगता है।
मगर थोड़ा गहराई से सोचने पर इसकी कमजोरियां दिखने लगती हैं। पहला, ज्यादातर कारसेवक 1949 में नहीं थे और सोलहवीं सदी में तो बिल्कुल ही नहीं थे। 1992 की क्रिया-प्रतिक्रिया व्यक्तिगत अनुभव या याददाश्त पर आधारित नहीं थी। युवाओं के बीच में आज जिस तरह की गैर-बराबरी बढ़ रही है, वह उत्तेजना पैदा करने वाले मत-प्रचार को सहूलियत ही देती है। दूसरा, मेरे आसपास के, मेरी उम्र के युवाओं में इस फैसले को लेकर मैंने अनपेक्षित उत्सुकता देखी। हां, डर या चिंता नहीं थी। अखबारों को ध्यान से पढ़ने पर यह साफ है कि मुस्लिम-बहुल इलाकों में चिंता थी, सड़कें खाली और दुकानें बंद थीं और फैसला आने के बाद इस बात पर राहत थी कि कोई उत्तेजनात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के 30 सितंबर, 2010 के फैसले के बाद की चर्चाओं से कई बातें निकल कर आई हैं। कई लोगों, विशेषत: जो कानून को जानते-समझते हैं, का कहना है कि यह फैसला कानूनी सिद्धांतों के बजाय आस्था पर आधारित है। दूसरी तरफ बहुसंख्यक मत इस फैसले को अच्छा और देश की धर्मनिरपेक्षता को मजबूत और दरारों को कम करने वाला मानता लगता है। सुन्नी वक्फ बोर्ड इस फैसले से कतई खुश नहीं है। आम मुस्लिम, विशेषत: जो सांप्रदायिक संवेदनशील इलाकों में रहते और जीवनयापन करते हैं, को राहत मिली कि यह फैसला कम से कम उनके जीवनयापन पर कोई आपदा नहीं लाया। मगर साथ ही, यह भी कहा जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय इस फैसले से निराश है। पिछले अठारह साल में हमारे देश में अल्पसंख्यक समुदायों के साथ जो भी हुआ है, उससे लगता है कि निराशा से ज्यादा कुछ प्रकट करने का उनके पास अधिकार ही नहीं रह गया है। सुप्रीम कोर्ट में अपील करना मात्र ही उनके इस विवाद को बढ़ावा देने के रूप में प्रचारित किया जा सकता है।
इस समय कुछ मूल प्रश्न सामने आ रहे हैं। किसी भी तरह की सहमति बनाने के लिए इन पर बातचीत व खुला संवाद जरूरी है।
1. क्या इस प्रकार का गहरा, जटिल व उत्तेजनात्मक विवाद, जो धार्मिक विश्वास से जुड़ा हो, उसका हल खोजने के लिए न्यायालय ही एकमात्र रास्ता है? क्या हमारी बाकी संस्थाओं ने इसको सुलझा पाने में अपनी हार स्वीकार कर ली है?
2. अपने लोकतंत्र में हम अपने न्यायतंत्र की क्या भूमिका देखते हैं? क्या इस तरह के फैसले को न्यायपालिका पर डालना न्यायोचित है? अगर हां, तो क्या हमारे धर्मनिरपेक्ष गणराज्य का न्यायशास्त्र इस भूमिका के लिए उपयुक्त रूप से विकसित हुआ है?
3. अगर हम इन मुद्दों को, जो अब अदालत के सामने हैं, एक संकीर्ण कानूनी विवाद के रूप में देखें, तो क्या जितनी आस्था और जनभावना की भूमिका भारतीय कानून में मान्य है, उससे ज्यादा हो सकती है?
4. एक कानूनी फैसला, जो औपचारिक रूप से समझौता न हो, कानूनी मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। संवाद व सहमति से समझौता हो सकता है। एक अदालत का फैसला, जो कानूनी मूल्यों से निकले हक पर आधारित होने का दावा करे, क्या बिना दोनों पक्षों की सहमति के ‘समझौता’ माना जाना चाहिए?
5. इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को ‘समझौता’ मानना, क्या धर्मनिरपेक्षता को खतरनाक तरीके से पुनर्परिभाषित करना नहीं है?
6. कानून की नजर में समानता और समान कानूनी संरक्षण का हमारे देश में क्या मतलब है?
7. अदालत में जाना, कानून में आस्था का द्योतक है। तो क्या आस्था व कानून को एक दूसरे से विपरीत देखकर हम कानून व संवैधानिक मूल्यों में अपनी आस्था डगमगा नहीं रहे?
8. इस बहुधार्मिक देश में जहां एक धर्म बहुमत में है, अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति इसकी अन्य संस्थाओं व राज्यव्यवस्था का क्या उत्तरदायित्व है ?
इन सब सवालों के जवाब कौन देगा ? कौन है जो इन को खोजने के लिए सामने आएगा? ये सब बातें आज भी विचारणीय हैं |
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