इस रिपोर्ट में अमेरिका ने खुद को पहले स्थान पर रखा है और चीन को दूसरे स्थान पर रखा गया है। दुनिया के शक्तिशाली देश अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए इस तरह की बौद्धिक कसरत लगातार करते हैं। इस तौर पर कुछ ऐसे आधार बनाकर वे अकादमिक व सरकारी सर्वेक्षण करवाते हैं, जिसमें वे खुद को अव्वल घोषित कर सकें और इन सर्वेक्षणों को लगातार प्रचारित किया जाता है।
अपने शक्तिशाली जनमाध्यमों द्वारा दुनिया में इन खबरों को पहुंचाना उनके लिए काफी आसान होता है। यही खबरें दुनिया के लोगों में उस मानसिकता की निर्मिति और विकास करती हैं, जहां एक देश के प्रति अन्य देश के लोगों और शासकों के लिए सबसे बड़ी ताकत का अहसास व भय लगातार बना रहता है। यह सांस्कृतिक साम्राज्य को बनाए रखने का एक तरीका है, हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स से आगे का तरीका।
बहरहाल, दुनिया में गरीबी, भुखमरी, जीवन स्तर, राष्ट्रीय शक्ति को लेकर पत्रिकाओं व संस्थाओं के द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों रिपोर्टे प्रस्तुत की जाती हैं। ये राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह की होती हैं, पर आखिर इनके तथ्यात्मक आधार में इतना अंतराल क्यों होता है। सन 2005 से लेकर अब तक भारत में गरीबी पर कई रिपोर्टे प्रस्तुत की गई हैं। चर्चित अजरुन सेनगुप्ता रिपोर्ट में देश में गरीबों की तादाद 78 प्रतिशत थी, तो सुरेश तेंदुलकर की रिपोर्ट में 37.2 प्रतिशत, एन.सी. सक्सेना ने गरीबी का जो आंकड़ा रखा वह 50 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने भारत में 42 प्रतिशत गरीबों को प्रस्तुत किया जो 26 अफ्रीकी देशों के गरीबों की संख्या से एक करोड़ ज्यादा था।
निश्चित तौर पर ये अंतर इसलिए आए, क्योंकि गरीबी रेखा का जो मानक है, सभी ने अलग-अलग रखा है। सरकार ने गरीबी रेखा का जो पैमाना 1970 में तय किया था, यदि उसके आधार पर कोई रिपोर्ट तैयार की जाएगी तो सेनगुप्ता के 78 प्रतिशत गरीब 30 प्रतिशत भी नहीं बचेंगे, परंतु मूल सवाल जीवन स्तर का है, उस वास्तविकता का जिसे देश को महाशक्ति के रूप में प्रचारित करते हुए देश की सरकार छुपा लेती है।
युनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम ने 2009 में दुनिया के 184 देशों की एक सूची प्रस्तुत की थी, जिसमें यह देखा गया कि भारत के लोगों का जीवन स्तर लगातार गिरता जा रहा है। भारत 2006 में दुनिया के देशों में 126वां था, 2008 में 128वां व 2009 में 134वां हो गया। हमारे देश में बड़ी संख्या है, जो खाद्य पूर्ति के अभाव में मर रही है, ऐसे में जीवन स्तर का घटना स्वाभाविक है। दरअसल, लोगों के पास अपने जीवन स्तर को ठीक रखने के लिए आर्थिक आधारों की जरूरत है और ये आर्थिक आधार इन्हें रोजगार से मिल सकते हैं, परंतु सरकार ऐसा कोई ठोस मसौदा अभी तक तैयार नहीं कर पा रही है जिससे बहुसंख्य आबादी के लिए जिन क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध हैं, उन्हें सहूलियत हो। बजाय इसके रोजगार के अवसर कम करने वाले क्षेत्रों की तरफ ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है।
भारत का 58 फीसदी रोजगार कृषि से जुड़ा हुआ है और महज आठ फीसदी रोजगार प्रशासन, आईटी, चिकित्सा के क्षेत्रों में है। ऐसे में कृषि से सरकार की विमुखता देश में जीवन स्तर के गिरावट का ही संकेत देती है।
इसके बावजूद गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों या फिर भूमिहीनों, जो कृषि से संबद्ध नहीं हैं, उनकी स्थिति को सुधारा जा सकता है। यदि देश में खाद्यान्न वितरण प्रणाली को ठीक कर दिया जाए तो ऐसा संभव है, पर न्यायपालिका के आदेश को लेकर अभी विधायिका व देश के प्रमुख नेताओं ने जिस तरह की टिप्पणी की, उससे यही लगता है कि देश की सरकार शक्तिशाली होने का गौरव और देश में भुखमरी दोनों को साथ में रखना चाहती है। देश में 50.2 मिलियन टन खाद्यान्न का भंडारण हो चुका है, जिसमें 50 फीसदी हिस्सा दो साल पुराना है, जबकि सरकार के पास भंडारण क्षमता इसकी आधी है। इसके बावजूद गरीबों को अनाज न वितरित करना यही संदेश देता है कि सरकार विकास की एकमुखी तस्वीर से ही देश की तस्वीर बनाना चाहती है।
निश्चित तौर पर देश में गरीबी व गरीबों को लेकर जो रिपोर्ट राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय आधार पर प्रस्तुत की जाती है, उसका संबंध यथार्थ से नहीं बल्कि एक ऐसे आधार से है, जिससे निहित स्वार्थो का प्रचार किया जा सके।
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